नई दिल्ली, जेएनएन। जापान की शीर्ष अदालत में जापानी में कार्यवाही होती है। चीन और फ्रांस सहित ऐसे तमाम देश हैं, जो जनता के लिए न्याय को जनता की भाषा में सुलभ करा रहे हैं। अफसोस, हम देश की आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं लेकिन आज भी जनता की भाषा में न्याय की तस्वीर स्याह ही है। अंग्रेजों का किया गया खेल अभी तक बदस्तूर जारी है। देश की 80 प्रतिशत आबादी जिस भाषा को अच्छे से समझती है, अच्छे से बोलती है और अच्छे से लिखती है, उसके लिए उसमें न्याय पाना दुर्लभ है।

दरअसल, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 348 (1) में यह प्रविधान किया गया है कि उच्च अदालतों की कार्यवाही अंग्रेजी में की जाएगी, हालांकि अनुच्छेद 348 (2) में इसमें बदलाव किए जाने का भी प्रविधान है। समय-समय पर कई राज्यों ने स्थानीय भाषाओं में अदालत का कामकाज शुरू किया, लेकिन अंग्रेजी वाली बात नहीं आ पाई। अब एक नई उम्मीद जगी है जब देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ प्रधान न्यायाधीश एनवी रमणा ने भी न्याय प्रणाली के भारतीयकरण पर जोर दिया है।

...जब सुप्रीम कोर्ट में जीत गई हिंदी

मई, 2013 में नौसेना कर्मचारी मिथिलेश कुमार सिंह के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने विभागीय कार्यवाही और सजा का आदेश यह कहते हुए निरस्त कर दिया था कि कर्मचारी द्वारा मांगे जाने पर भी उसे हिंदी में आरोप-पत्र नहीं दिया गया। सुप्रीम कोर्ट से पहले कैट और बांबे हाई कोर्ट ने मिथिलेश कुमार की याचिका खारिज कर दी थी। उन्होंने नौसेना की यह दलील मान ली थी कि कर्मचारी अनपढ़ नहीं है और उसने अपना फार्म अंग्रेजी में भरा था। इसलिए आरोप-पत्र हिंदी में न दिए जाने के आधार पर विभागीय जांच रद्द नहीं की जा सकती।


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