जगजीतसिंह भाटिया
प्रधान संपादक

गुरु ग्रंथ साहिब में लिखा है ‘पवन गुरु, पानी पिता, माता धरत महत’ अर्थात हवा को गुरु, पानी को पिता और धरती को मां का दर्जा दिया गया है। लेकिन लोग प्रकृति का अहसान भूलते जा रहे हैं। पानी से ही मनुष्य की उत्पत्ति है, लेकिन इस बात को समझना नहीं चाहते। प्रकृति हमें बार-बार चेताती है, लेकिन हम प्रकृति के कोप को मौसमी मार समझकर मौसम के बीतने का इंतजार करते रहते हैं। एक उदाहरण से जाने कि कभी तेज धूप तो अगले ही पल बारिश। कभी कंपकपाती सर्दी और चारों तरफ धुंध तो अगले ही पल आसमान साफ… यह चमत्कार नहीं, बल्कि प्रकृति का गुस्सा होता है हमारे प्रति। विकास के नाम पर प्रकृति से छेड़छाड़ सालों से होती रही है, लेकिन उसकी भरपाई नहीं की जाती। विकास कितना हुआ ये देखने की बात है पर इस दौरान प्रकृति के साथ हमने क्या किया है ये भी सोचने की बात है। आज न शुद्ध पानी है, न हवा और न ही शांत माहौलष। हमारे देश में नदियों को मां माना जाता है, लेकिन नदियों को गंदा करने का काम भी हम ही कर रहे हैं। कई नदियों की ऐसी हालत हो चुकी है कि उसका पानी अगर आदमी सीधा पी ले तो सीधे मौत से ही सामना होगा। अगर नहा भी लिया तो वह भी जानलेवा ही साबित होगा।

घर-आंगन में तुलसी और पीपल के पौधे को पूजने वाले लोगों ने पेड़ों को पराया कर दिया। लगातार अलग-अलग कारणों से पेड़ काटे जा रहे हैं। इस वजह से बारिश कम होती है और जमीन सूखी पड़ी रहती है। लगातार अपनी सुविधा और हित के लिए हम पेड़ को काट रहें है। हमने कभी पेड़ों की या नदियों की चेतावनी नहीं सुनी। हम अधिक विकास की रफ्तार के चलते तेजी से प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कर रहे हैं। पृथ्वी पर उपलब्ध प्राकृतिक संसाधन और उन संसाधनों के दोहन के अनुपात में अत्यधिक अंतर है। अत्यधिक दोहन के चलते शीघ्र ही प्राकृतिक संसाधनों के भंडार समाप्ति के कगार पर पहुंच जाएगा। लगातार बढ़ती गाड़ियों की संख्या से वायू प्रदूषण बढ़ गया है। सांस लेना मुश्किल हो गया है। वन्य जीवों का अस्तित्व भी खतरे में पड़ गया है। बार-बार आग लगने के कारण छोटे वनस्पतियों की कई प्रजातियां ही समाप्त हो गई है। हम सिर्फ मध्यप्रदेश की बात करें तो कई जंगल इस गर्मी में जल चुके हैं। अब उन जंगलों को हरा-भरा करने में कई साल लग जाएंगे। खेतों में भारी मात्रा में रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग से भूमि बंजर होती जा रही है। परंपरागत खादों का उपयोग लगभग बंद हो गया है। भू-जल स्तर तेजी से गिरता जा रहा है। हम इंदौर शहर की बात करें तो कई क्षेत्र नर्मदा नदी के पानी के भरोसे हैं, लेकिन कई इलाके आज भी बोरिंग या निजी टैंकरों के भरोसे हैं। कई बोरिंग दम तोड़ चुके हैं…, जिसका कारण लोग ही है। अगर हर साल बारिश का पानी सहेजा जाए, पेयजल को बर्बाद न होने दिया जाए तो ही ऐसी स्थिति से बचा जा सकता है, अन्यथा पानी भी एक कहानी बनकर रह जाए….।

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