- प्रतापसिंह सोढ़ी

मो. 89302-35285


बड़ी मशक्कत के बाद एक मित्र की सहायता से प्रसिद्ध मूर्तिकार घोष साहब से भेंट का अपाइंटमेंट लिया। उनके घर पहुंच कॉल बेल बजाई। एक अधेड़ महिला ने दरवाजा खोला और पूछा, आप दादा से मिलने आए हैं? हमने हां भरी। एक संकरे से गलियारे से वह हमें घोष साहब के एक बड़े से हॉल में ले गईं। घोष साहब आराम कुर्सी पर बैठे सामने रखी दुर्गाजी की मूर्ति को टकटकी लगाए देख रहे थे। कुर्सी की पीठ पर उनकी छड़ी टंगी थी। उनकी धोती जमीन को छू रही थी। लंबी श्वेत दाढ़ी और कुर्ते के बटन खुले थे। आयु अस्सी वर्ष के करीब थी।उस महिला ने घोष साहब को छूकर उनका ध्यान हमारी तरफ मोड़ा।पास पड़ी कुर्सियों की ओर इशारा करते हुए धीमे स्वर में उन्होंने कहा, क्या आप पत्रकार हैं हमने उत्तर दिया नहीं।जो कुछ पूछना हो, जल्दी पूछ लो। मेरी तबियत ठीक नहीं है। घोष साहब ने अपनी िववशता प्रकट की।आप इस आयु में भी काम कर रहे हैं, लेकिन अभी तक आपको कोई पुरस्कार नहीं मिला।मैंने कभी पुरस्कार के लिए मूर्तियां नहीं बनाईं।  
फिर भी पुरस्कार प्राप्त करने के लिए जो हथकंडे अपनाने पड़ते हैं, मैं हमेशा उनसे दूर रहा।क्या आप अपने काम से संतुष्ट हैं?नहीं, बहुत-सी खामियां रह गई हैं, जिन्हें अगले जन्म में दूर करुंगा। आप एकाध सवाल और पूछकर बिदा लें तो बड़ी मेहरबानी होगी।आिखरी सवाल घोष साहब! आपके बारे में अफवाह है कि इस आयु में भी आपने एक महिला को रखा हुआ है।उनका बर्फ-सा सर्द कांपता हाथ मेरे हाथों में आ गया और रूंधे कंठ से वे बोले - क्या इन हाथों में किसी को थामने की शक्ति है। न मुंह में दांत, न पेट में आंत, बुझी हुई आंखों की रोशनी और तिल-तिल गलती मेरी जर्जर काया..., मैं तो मोत के दिन गिन रहा हूं।इतना कह वह चुप हो गए और मू्र्तियों को निहारने लगे।
 अपनी धोती के छोर से आंखों मे तैरने वाले आंसुओं को पोंछते हुए बोले- जिस औरत के बारे में मनघड़ंत इल्जाम मुझ पर लगाए जा रहे हैं, वह एक विधवा औरत है। दीपा को संरक्षण की आवश्यकता थी और मुझे बुढ़ापे में सहारे की। अब आप जाइए। मैं विश्राम करना चाहता हूं।दीपा हमें छोड़ने बाहर तक आईं और बोली, दादा जल्दी स्वस्थ हो जाएं, आप ईस्वर से प्रार्थना करें।अब तक संभाले दीपा के आंसू टप-टप झर पड़े।

Post a Comment

Previous Post Next Post