इस तरह आशावादी जीवन हो जाता है


वसुधैव कुटुम्बकम अर्थात धराको ही अपना कुटुम्ब मानने की भावना को हमारी संस्कृति महत्व देती रही है या यों कहें देती रही थी। आज जो आधुनिकता की क्रांति आई है इसमें पुराना सब कुछ भुलाने पर जोर दिया जाता है। इसी प्रकार संयुक्त परिवार प्रथा भी अब खत्म होती जा रही है। आज के व्यस्त जीवन में संबंधों की डोर हर तरफ से टूटने की कगार पर आ पहुंची है। आज कई ऐसे बच्चे होंगे जो अपने सगे मौसेरे, चचेरे, फुफेरे भाई बहनों को जानते तक नहीं।  रिश्तेदारों की जगह आज मित्र भी कैसे होते हैं। वही जो कुछ काम आने वाले हों जिनसे कोई आर्थिक या किसी और तरह का फायदा हो सकता है। नया जमाना आने पर पुराना बदलना लाजिमी है लेकिन सिर्फ बदलने की गर्ज से पुराना अच्छा भी बदलना कहां की समझदारी है। अंकल-आंटी की इम्पर्सनल फार्मेलिटी के बजाय क्या चाचा-चाची, मामा-मामी, फूफा-बुआ में मिठास, अपनापन दिल को अपनी मधुरता से ज्यादा नहीं भर देता?

आज जरूरत है इन संबंधों की नब्ज टटोलने की। संबंधों को सुदृढ़ बनाने के लिए निरंतर संपर्क में रहना जरूरी होता है। जैसे संभव हो फोन पर या पत्र व्यवहार द्वारा। छुट्टियों में दो-चार दिन के लिए आप रिश्तेदारों के यहां जा सकते हैं। कभी उन्हें बुला सकते हैं। ध्यान रहे अपने यहां की प्रसिद्ध चीज चाहे वह सस्ता फल ही क्यों न हो साथ ले जाना न भूलें।

इस उदाहरण को समझकर हम अपनापन के बारे में सोच सकते हैं। नीलम अपने माता-पिता की इकलौती संतान थी। मां-बाप के गुजर जाने पर उसके लिए पीहर के नाम पर एक खाली मकान भर था। वह निराश रहने लगी। माता-पिता को याद कर उसके आंसू न थमते। ऐसे में अचानक एक दिन उसके ताऊ का लड़का वीरेश अपनी पत्नी और दोनों बच्चों समेत उससे मिलने आ गया। कहना न होगा नीलम ने कैसे उनकी खातिर की।  वीरेश को जब नीलम के पति से पता चला कि किस तरह नीलम अवसाद से घिरी जीवन से विमुख हो चली थी, उनके आने से ही थोड़ी नार्मल हुई है तो वीरेश और उसकी पत्नी लता नीलम को कुछ दिनों के लिए अपने साथ जयपुर ले गए। जीजी, बुआ के मीठे बोल सुनते नीलम अब गहरे अवसाद से उबरकर फिर से पूर्ववत हंसने-बोलने लगी थी। भावनात्मक संरक्षण हर मानव की प्राथमिक जरूरत है। ये संरक्षण उसे मधुर संबंध ही प्रदान कर सकते हैं। जो बच्चे शुरू से संबंधियों के बीच में रहते हैं, वे वृद्धावस्था में माता-पिता के प्रति ज्यादा संवेदनशील होते हैं। अगर हम यह बात शुरू से ही बच्चों को बताएं कि नि:स्वार्थ प्यार संबंधों की मधुरता और दायित्व ही जीवन को रससिक्त बनाते हैं, दुख में शांति-सुकून देते हैं न कि आत्म केंद्रित रहना। सुखों की मरीचिका के पीछे दौड़ते रहने में रिश्तों को भुला देना उचित नहीं। यह सही वक्त है कि हम आने वाली पीढ़ी को कई प्रकार के मानसिक विकारों से बचाने की कोशिश करते हुए अपनी गलतियों को सुधारने का प्रयत्न करें। अपने ऊब भरे नीरस जीवन को संबंधों की मधुरता से सींचते हुए रसरिक्त करें।


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