जगजीतसिंह भाटिया
प्रधान संपादक

हमारा समाज बड़ा विचित्र है, और समाज के  लोग भी। जितना होता है, उसके ज्यादा की अपेक्षाएं हमेशा रहती है। धन-संपत्ति जितनी होती है, उतनी कम लगने लगती है। वहीं, हर माता-पिता चाहते हैं कि उनका बेटा होनहार ही हो। अपेक्षा इतनी कि उस बेटे में डॉक्टर, इंजीनियर, वकील, फिल्मी हीरो सहित तमाम वो लोग जो या तो बड़े ओहदों पर है या फिर बड़ी कंपनियों में बड़ी सैलरी कमा रहे हैं। ऐसे बच्चों को गढ़ने के लिए उनका बचपन छीन लिया जाता है और वह पैसा बनाने की मशीन तो बन जाता है, लेकिन जीवन के उतार-चढ़ाव और आने वाली परेशानियों से लड़ने का उसे अनुभव नहीं मिल पाता और अचानक कोई मुसीबत सामने आ जाए तो उसके सामने सिर्फ एक ही रास्ता रहता है... मौत, और वह सारी झंझटों से मुक्त होकर इसे ही आसान रास्ता समझता है। इन सब बातों की वजह को कोई जानना नहीं चाहता कि आिखर गलती हुई कहां? सिर्फ भाग्य को कोसते रह जाते हैं।

असल में कहानी शुरू होती है मां-बाप से बचपन से ही उस बच्चे के लिए सपने संजोना शुरू कर देते हैं। जब उसकी खेलने की उम्र रहती है तो उस पर अनावश्यक पढ़ाई का बोझ डाल दिया जाता है, जो उस बच्चे की समझ में ही नहीं आता... समझ नहीं आता तो उस बच्चे को कोचिंग, ट्यूशन लगा दी जाती है। धीरे-धीरे बच्चा समझदार होकर स्कूल में फर्स्ट क्लास आने लगता है और यह फर्स्ट क्लास उसकी आदत में शुमार हो जाता है। बहुत ब्रिलियंट हो जाता है। सारी जिंदगी वह फर्स्ट आया। साइंस में बाजी मारी और हमेशा उसका स्कोर 100 प्रतिशत रहा। ऐसे बच्चों के माता-पिता बड़े खुश होते हैं और यह होनहार बच्चा इंजीनियर बनने की तरफ अपने कदम बढ़ा देता है और उसका सिलेक्शन भी आईआईटी चेन्नई या अन्य जगह हो जाता है। वहां से वह बीटेक करके अमेरिका पढ़ने निकल जाता है।  अमेरिका में यूनिवर्सिटी ऑफ  केलिफोर्निया से MBA कर लेता और और जायज है कि इतना पढ़-लिख लेगा तो अच्छी नौकरी ही मिलेगी और वह भी उसे मिल जाती है। उसने वहां भी हमेशा टॉप ही किया।

 

अब यहां से शुरू होती है, उसकी लक्जरी लाइफ..., वहीं नौकरी करने लग जाता है।  5 बेडरूम का घर उसके पास। शादी यहां चेन्नई की ही एक सुदरसी लड़की से कर लेता है.., और क्या चाहिए एक आदमी को...और क्या मांग सकता है। सारा सुख तो मिल ही गया। पढ़-लिखकर इंजीनियर बन गए, अमेरिका में सेटल हो गए, मोटी तनख्वाह की नौकरी, बीवी बच्चे, सुख ही सुख।लेकिन अचानक उसी  लड़के ने 7 साल पहले  अमेरिका  में सपरिवार आत्महत्या कर ली। अपनी पत्नी और बच्चों को गोली मारकर खुद को भी गोली मार ली। What went wrong? आखिर ऐसा क्या हुआ, गड़बड़ कहां हुई। ये कदम उठाने से पहले उसने बाकायदा अपनी पत्नी से discuss की, फिर एक लम्बा suicide नोट लिखा और उसमें बाकायदा अपने इस कदम को justify किया और यहां तक लिखा कि यही सबसे श्रेष्ठ रास्ता था। इन परिस्थितियों में।

 उनके इस केस को और उस suicide नोट को California Institute of Clinical Psychology ने ‘What went wrong’? जानने के लिए study किया। पहले कारण क्या था, suicide नोट से और मित्रों से पता किया। अमेरिका की आर्थिक मंदी में उसकी नौकरी चली गई। बहुत दिन खाली बैठे रहे। नौकरियां ढूंढते रहे। फिर अपनी तनख्वाह कम करते गए और फिर भी जब नौकरी न मिली, मकान की किश्त जब टूट गई, तो सड़क पर आने की नौबत आ गई। कुछ दिन किसी पेट्रोल पम्प पर तेल भरा बताते हैं। साल भर ये सब बर्दाश्त किया और फिर पति पत्नी ने अंत में खुदकुशी कर ली...।

स्टडी : असफलता का सामना करना नहीं सिखाया

इस case study को ऐसे conclude किया है experts ने : यह व्यक्ति सफलता के लिए तो तैयार था, पर इसे जीवन में ये नहीं सिखाया गया कि असफलता का सामना कैसे किया जाए।अब उसके जीवन पर शुरू से नजर डालते हैं। पढने में बहुत तेज था, हमेशा फर्स्ट ही आया। ऐसे बहुत से Parents को मैं जानता हूँ जो यही चाहते हैं कि बस उनका बच्चा हमेशा फर्स्ट ही आये, कोई गलती न हो उस से। गलती करना तो यूं मानो कोई बहुत बड़ा पाप कर दिया और इसके लिए वो सब कुछ करते हैं, हमेशा फर्स्ट आने के लिए।

 फिर ऐसे बच्चे चूंकि पढ़ाकू कुछ ज्यादा होते हैं सो खेल कूद, घूमना-फिरना, लड़ाई झगडा, मारपीट, ऐसे पंगों का मौका कम मिलता है बेचारों को, 12th कर के निकले तो इंजीनियरिंग कॉलेज का बोझ लद गया बेचारे पर, वहां से निकले तो MBA और अभी पढ़ ही रहे थे कि मोटी तनख्वाह की नौकरी। अब मोटी तनख्वाह तो बड़ी जिम्मेवारी, यानी बड़े बड़े targetsये दुनिया, बड़ी कठोर है और ये जिंदगी, अलग से इम्तेहान लेती है। आपकी कॉलेज की डिग्री और मार्कशीट से कोई मतलब नहीं उसे। वहां कितने नंबर लिए कोई फर्क नहीं पड़ता। ये जिंदगी अपना अलग question paper सेट करती है। और सवाल, सब out ऑफ syllabus होते हैं, टेढ़े-मेढ़े, ऊट-पटांग और रोज इम्तहान लेती है। कोई डेट sheet नहीं।

एक अंग्रेजी उपन्यास में एक किस्सा पढ़ा था। एक मेमना अपनी मां से दूर निकल गया। आगे जाकर पहले तो भैंसों के झुण्ड से घिर गया। उनके पैरों तले कुचले जाने से बचा किसी तरह। अभी थोडा ही आगे बढ़ा था कि एक सियार उसकी तरफ झपटा। किसी तरह झाड़ियों में घुस के जान बचाई तो सामने से भेड़िये आते दिखे। बहुत देर वहीं झाड़ियों में दुबका रहा, किसी तरह माँ के पास वापस पहुंचा तो बोला, माँ, वहां तो बहुत खतरनाक जंगल है
इस खतरनाक जंगल में जिंदा बचे रहने की ट्रेनिंग बच्चों को अवश्य दीजिये।

विशेष - बच्चों को बस किताबी कीडा मत बनाइए, बच्चों को पढ़ाई के साथ-साथ धार्मिक, समाजिक व संस्कार भी देना जरूरी है, हर परिस्थिति को खुशी-खुशी धैर्य के साथ झेलने की क्षमता और उससे उबरने का ज्ञान और विवेक बच्चों में होना ज़रूरी है।Don’t  make them machine with brain rather humans with emotions and feelings. किसी पाश्चात्य दार्शनिक ने फरमाया है कि बच्चे हमारे है, जान से प्यारे है।

 अर्थात  बच्चों को सिर्फ पढ़ाना-लिखाना ही पैरेंट्स का कर्तव्य नहीं है, बल्कि उन्हें मॉरल वैुल्यूज और संवेदनाओं के स्तर पर भी बेहतर ढंग से विकसित किया जाना चाहि। 20 -25 साल की उम्र तक यदि शारीरिक विकास।  मानसिक  विकास, आर्थिक विकास और आध्यात्मिक विकास में से कोई  एक भी अधूरा रह गया, तो वह आजीवन अधूरा ही रहेगा, भले ही वह प्रधानमंत्री बन जाए या बिल गैट्स,अंबानी, अडानी की तरह टॉप पूंजीपति ही क्यों न हो जाए...।

 

 

 

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